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How The Sugar Mafia is Killing India | शुगर माफिया आपके जिंदगी से कैसे खेल रहे है - जाने हिंदी में |

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हेलो दोस्तों,
अगर आपके घर में एक सामान्य भारतीय परिवार की खाने की चीजे और आदते है तो आप चीनी का महत्त्व अवश्य ही जानते होंगे | भारतीय घरो में चीनी अब एक बेहद खास और मूलभूत जरुरत है | कोई काम हो जैसे की त्यौहार हो, घर में कोई फंक्शन हो या जब कोई मेहमान हमारे घर आता है, तो हमें चीनी की आवश्यकता होती है | 
लेकिन जब इतना सारा खुशी और अच्छाई इस इसी चीनी के साथ आता है, ये सारे शब्द जो बहुत सारे ब्रांड अपने विज्ञापनों में प्रयोग करते है – इन सबकी हमें एक कीमत चुकानी पड़ती है, पैसे वाली कीमत नहीं अपने स्वास्थ्य की कीमत ! नहीं समझे ? 
तपस्या मुंद्रा (Nutritionist) ने एक इंटरव्यू में बताया की “चीनी एक जहर है और यह एक नया धुम्रपान है” 
यह सुनकर कई लोग हैरान हो सकते है? लेकिन जरा इस ग्राफ को देखिये 
death data due to sugar

Death Data due to Sugar in India

आप देख सकते है कि कैसे 1990 से लेकर 2015 तक भारत में मधुमेह (Sugar) से होने वाली मौतों की संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है | 
मीडिया रिपोर्टो ने दावा किया है कि वास्तव में हाल के वर्षो में भारत दुनिया की मधुमेह (Sugar) की राजधानी बन गया है | जरुरत से ज्यादा चीनी का सेवन मधुमेह (Sugar) में वृद्धि के पीछे एक प्रमुख कारण है | शोध से पता चला है कि एक औसत भारतीय प्रतिदिन लगभग 50 ग्राम चीनी (लगभग 10 चम्मच) का सेवन करता है | जबकि डब्ल्यूएचओ आपकी कुल उर्जा खपत का 10% या लगभग 25 ग्राम (5 चम्मच) एक दिन की सिफारिश करता है | 

वैसे भारत रातोंरात दुनिया की मधुमेह राजधानी नहीं बना, भारत कई वर्षो से इस समस्या का सामना कर रहा है | इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? कंपनियां, राजनेता या हम जैसे उपभोक्ता? 

सबसे पहले, आइये समझते है कि जब हम चीनी कहते है तो हमारा क्या मतलब होता है? सफेद चीनी के अलावा भारत में गुड़ और खांड जैसे कई प्रकार के पारंपरिक मिठास हैं। इन तीनो को गन्ने के रस से प्राप्त किया जाता है, लेकिन इनके प्रसंस्करण (Processing) में बहुत बड़ा अंतर है | 

चूंकि चीनी रिफाइनरी प्रसंस्करण (Refinery Processing) विधियों द्वारा बनाई जाती है, इसलिए इसमें से सभी पोषक तत्व समाप्त हो जाते हैं, यही कारण है कि यह अस्वास्थ्यकर है। लेकिन गुड़ और खांड पोषक तत्वों को बरकरार रखते हैं क्युकी इनकी प्रोसेसिंग नेचुरल है | यदि आप अपने आस-पास देखेंगे तो आपको गुड़ और खांड बहुत कम मिलेंगे, लेकिन सफेद चीनी आपको हर जगह जरूर मिलेगी।

ये सब कैसे हुआ ? इसको समझने के लिए हमें 400 साल पहले के भारतीय इतिहास में जाना होगा | 
हमारी कहानी 17वीं शताब्दी में शुरू होती है जब यूरोपियों ने दुनिया के अधिकांश हिस्सों में उपनिवेश स्थापित कर लिया था। यूरोपीय लोग, जो परंपरागत रूप से सीमित आपूर्ति में शहद पर निर्भर थे, पता चला कि पश्चिमी गोलार्ध के कुछ देश, गन्ना उगाने के लिए पूरी तरह से अनुकूल थे ये देश कैरेबियन द्वीप समूह में स्थित थे | लेकिन इसमें एक समस्याएँ थी...

गन्ने कि खेती और कटाई में कठिन, व्यापक श्रम और स्थानीय जनशक्ति दुर्लभ या अनुपलब्ध थी। तो यूरोपीय लोगों ने इस समस्या का समाधान कैसे किया? गुलामी प्रथा का उपयोग करके | 
यूरोपीय लोग अफ्रीकी गुलामों को इन देशों में लाए और इसके अलावा, लाखों गरीब भारतीयों को जबरदस्ती उपनिवेश क्षेत्रों में ले जाया गया। सरल शब्दों में कहे तो, बागानों में दासों और गुलामो द्वारा किए गए व्यापक श्रम के कारण यूरोप में चीनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। 

अब भारत में आते हैं।
शोध के अनुसार भारत में गन्ने की खेती और चीनी बनाने का संदर्भ एक भारतीय धार्मिक ग्रंथ अथर्ववेद में मिलता है। वास्तव में माना जाता है कि दुनिया में सबसे पहले चीनी का उत्पादन भारत में हुआ था। परंपरागत रूप से भारतीयों ने गुड़ और खांड को मिठे के रूप में इस्तेमाल किया है। लेकिन जैसे ही अंग्रेजों ने परिष्कृत (Processed) सफेद चीनी का बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन शुरू किया, और इस परिष्कृत चीनी को 19 वीं शताब्दी के अंत में भारत में पेश किया गया। रासायनिक रूप से उत्पादित यह परिष्कृत चीनी बिस्कुट, मिठाई, चॉकलेट आदि में पाई जाती है।

वर्ष 1930 में, भारत में आधुनिक चीनी प्रसंस्करण उद्योग चीनी उद्योग (Modern sugar processing industry) को टैरिफ संरक्षण के अनुदान के साथ शुरू किया गया था | जिसके कारण चीनी मिलों की संख्या और चीनी उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई। दरअसल, 1930 और 1935 के बीच उत्पादन में 460% की वृद्धि हुई। इसके अलावा, भारत सरकार ने 1954 में एक लाइसेंसिंग नीति पेश की जिसने चीनी उद्योग को और बढ़ावा दिया।

आज भारत, ब्राजील के बाद गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है | और जबकि स्वतंत्रता के समय, गन्ने के उत्पादन का 2/3 भाग गुड़ और खांडसारी के उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता था, अब केवल 1/3 का उपयोग उनके उत्पादन के लिए किया जाता है। इसलिए गन्ने का एक बड़ा हिस्सा सफेद चीनी के उत्पादन में चला जाता है। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि औद्योगीकरण के साथ सफेद चीनी सस्ती हो गई है और इसकी मांग बढ़ गई है।

जैसा कि हमने पहले बताया, सफेद चीनी अपने साथ कई समस्याएं लेकर आई। पहले, समस्याओं की प्रकृति के बारे में समझते हैं, फिर हम जानेंगे कि समस्याएँ कैसे उत्पन्न हुईं? सफेद चीनी तीन स्वास्थ्य जटिलताएं पैदा करती है।

सबसे पहले इसको बिना उर्जा (Empty calories) वाला कहा जाता है | यानि सफेद चीनी बिना किसी पोषण लाभ (nutritional benefits) के हमारे शारीर में कैलोरी जोड़ती है जोकि गुड़ और खांड के मामले में ऐसा नहीं है | 

दूसरा, सफेद चीनी लोगों को अधिक तरसती है यानि की इच्छा जागृत करती है। चीनी खाने से हमारे दिमाग में डोपामाइन नाम का न्यूरोट्रांसमीटर रिलीज होता है। डोपामाइन एक रसायन है जो हमें खुशी महसूस करने में भूमिका निभाता है। इसलिए क्योंकि चीनी से डोपामाइन निकलता है, जिससे आनंद मिलता है, और हम अधिक से अधिक चीनी खाना पसंद करते हैं। ठीक इसी तरह ही जब कोई सिगरेट पीता है तो भी डोपामाइन निकलता है इसलिए धूम्रपान करने वालों के लिए धूम्रपान छोड़ना मुश्किल हो जाता है।

तीसरा, बड़ी मात्रा में सफेद चीनी खाने से मधुमेह का खतरा बढ़ जाता है। आप जितनी अधिक चीनी का सेवन करेंगे, आपको मधुमेह होने का खतरा उतना ही अधिक होगा। आप जानते होंगे कि मधुमेह से पीड़ित लोगों को दिल का दौरा जैसी पुरानी स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा होता है। बड़ी संख्या में अध्ययनों में पाया गया है कि जो लोग नियमित रूप से चीनी-मीठे पेय पदार्थ पीते हैं उनमें टाइप 2 मधुमेह का लगभग 25% अधिक खतरा होता है। जबकि फलों और सब्जियों में पाए जाने वाले प्राकृतिक शर्करा के समान जोखिम नहीं होते हैं। क्योंकि फलों और सब्जियों में प्राकृतिक चीनी होती है जो आपके शरीर के लिए कम हानिकारक होती है। उदाहरण के लिए, 100 ग्राम संतरे में 9 ग्राम चीनी होती है, जबकि 100 ग्राम किट कैट में 51 ग्राम चीनी होती है |

चीनी न सिर्फ आपकी सेहत के लिए हानिकारक है बल्कि पर्यावरण के लिए भी काफी हानिकारक है। गन्ना दुनिया में सबसे अधिक पानी की जरूरतों वाली फसलों में से एक है। 
एक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एचएम देसरदा कहते हैं, ''1 हेक्टेयर गन्ना 12-15 महीनों में 3 करोड़ लीटर पानी की खपत करता है.'' 

वह पानी साल भर में एक हजार लोगों के लिए पर्याप्त है। अप्रत्याशित रूप से, गन्ने की खेती भारत के भूजल भंडार पर भारी पड़ रही है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में गन्ने के लिए 2,500 मिमी पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन इस क्षेत्र में वर्षा 500-700 मिमी के बीच होती है। इस प्रकार, किसान को गन्ने की खेती के लिए भूजल पर निर्भर हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में भूजल का स्तर बहुत कम है कि शायद ही कोई पानी बाहर निकालने के लिए बचा हो। महाराष्ट्र सूखा प्रभावित क्षेत्र है और गन्ना ही एकमात्र ऐसी फसल नहीं है जिसकी खेती किसान कर सकते हैं। वे ऐसी फसलें उगा सकते हैं जिनमें कम पानी की आवश्यकता होती है जैसे ज्वार और दलहन। लेकिन इसके उच्च रिटर्न के कारण, किसान गन्ने की खेती करने का विकल्प चुन रहे हैं।

नीति आयोग की एक रिपोर्ट से पता चला है कि गन्ने की खेती से होने वाला लाभ अन्य फसलों की तुलना में लगभग 60%-70% अधिक है। उदाहरण के लिए, यूपी में एक किसान ने गन्ने के उच्च रिटर्न पर चर्चा करते हुए कहा,
"हमें इससे ज्यादा लाभ किसी अन्य फसल से नहीं मिलेगा। बासमती धान या आलू में, मूल्य अनिश्चितता बहुत अधिक है और सर्कार मुश्किल से ही यहाँ गेहूं खरीदती है”

जैसा कि हमने पहले बताया, सफेद चीनी अपने साथ कई समस्याएं लेकर आई। यह कैसे हुआ? राजनेताओं, उपभोक्ताओं और उत्पादकों के बीच गठजोड़ के कारण। भारत में सफेद चीनी की लोकप्रियता के लिए तीन कारक जिम्मेदार हैं।

पहला है भारत का पैकेज्ड फूड इंडस्ट्री। एक लोकप्रिय पोषण विशेषज्ञ रुजुता दिवेकर (Rujuta Diwekar - popular nutritionist) ने कहा कि "भारत में चीनी की सीधी रसोई में खपत ज्यादा नहीं है मतलब मध्यम है ।

एक कप चाय में एक चम्मच चीनी या सप्ताह में एक बार मिठाई खाने से चिंता की कोई बात नहीं है | समस्या तब उत्पन्न होती है जब लोग बहुत सारे पैकेज्ड फूड का सेवन करना शुरू कर देते हैं, जबकि उन्हें पता नहीं होता कि इन उत्पादों में कितनी चीनी है। फलों के रस, दही, और नाश्ते के अनाज जिन्हें स्वस्थ विकल्प के रूप में प्रचारित किया जाता है, अक्सर अतिरिक्त चीनी से लदे होते हैं।

उदाहरण के लिए, बॉर्नविटा (Bournvita) और इसके जैसे "स्वास्थ्य" पेय पर विचार करें। हॉर्लिक्स का दावा है कि यह "बच्चों को लंबा, मजबूत और तेज बढ़ने में मदद करने के लिए चिकित्सकीय रूप से सिद्ध है"। और कॉम्प्लान का दावा है कि यह "चिकित्सकीय रूप से सिद्ध" है कि यह बच्चों में "2x तेज विकास" में सहायता करता है। मूल रूप से, विज्ञापन दिखाते हैं कि हॉर्लिक्स और कॉम्प्लान स्वस्थ हैं। लेकिन विशेषज्ञों का तर्क है कि ये पेय वास्तव में उनके 'स्वस्थ' के लायक नहीं हैं

उदाहरण के लिए, 20 ग्राम बॉर्नविटा में 14.2 ग्राम चीनी होती है। क्या आपको लगता है कि यह 'स्वस्थ' है? 'स्वस्थ' पेय का यह मिथक व्यापक विपणन (Extensive Marketing) द्वारा बनाया गया है।

बाल रोग विशेषज्ञ महेश बालाशेखर का कहना है कि “इसके पीछे एक प्रमुख कारण चीनी लॉबी है जिसका सरकार द्वारा विनियमित (Regulate) किए जाने पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है”  
बच्चों के लिए बने विज्ञापनों को ही देखें।

सेंट जॉन्स रिसर्च इंस्टीट्यूट में पोषण विभाग में प्रोफेसर रेबेका राज (Nutrition) ने कहा कि....
कंपनियां आक्रामक मार्केटिंग रणनीतियों का उपयोग कर रही हैं जैसे कि सेलिब्रिटी का विज्ञापन में लेना, कार्टून चरित्रों का उपयोग, आकर्षक नारे (Catchy Slogans), और मुफ्त उपहारों को शामिल करना। ये सभी रणनीतियाँ बच्चों को लुभाती हैं। वह कहती हैं कि ये रणनीतियाँ बच्चों और परिवारों के खरीदारी विकल्पों को प्रभावित करती हैं और आकर्षित होकर इन उत्पादों को खरीदती है | 

क्या भारत में कोई प्राधिकरण (एजेंसीज) यह जांच करता है कि "स्वस्थ" के रूप में विज्ञापित उत्पाद वास्तव में स्वस्थ हैं या नहीं? नहीं, ऐसा कोई एजेंसीज नहीं है, इसके पीछे एक प्रमुख कारण भारतीय चीनी मिलों का राजनीतिक प्रभाव है।

2018 में, स्मृति ईरानी, पूर्व I & B मंत्री ने संसद में कहा,
"सरकार की उच्च वसा (High fat), चीनी (Sugar) और नमक वाले खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की कोई योजना नहीं है। आगे उन्होंने कहा कि फूड एंड बेवरेज एलायंस ऑफ इंडिया जैसे उद्योग निकायों ने "पहले ही तय कर लिया है कि बच्चों से संबंधित खाद्य और पेय विज्ञापनों को स्वेच्छा से प्रतिबंधित करेंगे |”

मूल रूप से वे स्वयं को स्व-विनियमित (Self-Regulate) करेंगे की उन्हें बच्चों से संबंधित खाद्य और पेय विज्ञापनों को खुद निर्णय लेंगे की क्या दिखाना है क्या नहीं | लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह स्व-नियमन और उद्योग द्वारा किए गए स्वैच्छिक उपायों से आगे बढ़ने का समय है। यह उद्योग, विनियमन (Regulatory body) से परे कैसे रहता है? जैसा कि हमने पहले उल्लेख किया है: राजनीतिक शक्ति।

उदाहरण के लिए कर्नाटक के बेलगावी का मामला लें। पूर्व केंद्रीय मंत्री बाबागौड़ा पाटिल ने खुलासा किया कि
"चीनी भारत में सबसे अधिक राजनीतिकरण वाला उद्योग है। सभी कारखाने राजनेताओं के स्वामित्व में हैं और प्रत्येक राजनेता चाहता है की कम से एक खरखाने के मालिक वो हो"

राजनीतिकरण के कारण भारत में चीनी की अधिक आपूर्ति होती है। भारत में चीनी की प्रति वर्ष 2.5 करोड़ टन की मांग है, लेकिन इसमें शामिल राजनीतिक समर्थन (Involvement) के कारण, हमने उत्पादन को 35 मिलियन टन से अधिक होने दिया है। चीनी की अधिक आपूर्ति (Over Production) के कारण चीनी मिलों ने घरेलू खपत बढ़ाने के लिए काम कर रहे है। घरेलू मांग को बढ़ावा देने के लिए मिलों ने एक ऑनलाइन अभियान-Metha.org शुरू किया है।

साथ ही यह राजनीतिकरण किसानों की भयावह स्थिति के लिए भी जिम्मेदार है। दो साल पहले, महाराष्ट्र में गन्ना किसानों को भुगतान करने वाली कुल 180 चीनी मिलों में से किसी न किसी राजनेता से जुड़ी थीं (BJP Leaders - 77, Congress Leaders - 43, NCP Leaders - 53)। चीनी उद्योग के राजनीतिकरण ने पूरे भारत में गन्ना किसानों को 24,000 करोड़ रुपये के बकाया का इंतजार करने के लिए वाध्य किया है। और ये आकड़ा रोजाना बढ़ता ही जा रहा है | 

चीनी की घरेलू खपत में उछाल के पीछे तीसरा कारण कीमतों का स्थिर होना है। असल बात यह है कि पिछले 7 वर्षों में चीनी की कीमत वास्तव में नहीं बदली है।

आइए इस समस्या के समाधान के बारे में बात करते हैं।
इस समस्या से निपटने के लिए सरकार, नागरिकों और उद्योगों को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। सरकार को खाद्य और पेय पदार्थों के मार्केटिंग को विनियमित (Regulate) करने की आवश्यकता है क्योंकि स्वैच्छिक विनियमन (Self-Regulation) काम नहीं कर रहा है।

स्वैच्छिक विनियमन (Self-Regulation) ने खाद्य और पेय कंपनियों को खुद को 'स्वस्थ' कहने का मौका दिया है। उनके पास अधिकार है अपने प्रोडक्ट को विज्ञापनो में सेफ बताने का जिसकी कोई क्रॉस चेक नहीं है, की ये जो विज्ञापन में बोल रहे है वो सही है | 

दूसरा, सरकार को किसानों को गन्ने के अलावा अन्य फसलों जैसे दलहन, ज्वार और चुकंदर में बदलाव लाने में मदद करने की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव है जब सरकार चीनी मिलों के राजनीतिक प्रभाव का विरोध करे। 

उद्योगों को बेहतर लेबलिंग करने की आवश्यकता है। यह निश्चित नहीं है कि सरकार उनके विज्ञापनों और मार्केटिंग के तरीको को कंट्रोल करेगी या नहीं, लेकिन हम उनसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे हमें 'स्वस्थ (Healthy)' के रूप में टैग किए गए चीनी से भरे उत्पादों को नहीं बेचेंगे।

व्यक्तिगत स्तर पर हमें डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों को कम से कम प्रयोग करना चाहिए और इनके बदले फलों और सब्जियों का प्रयोग करना चाहिए। हमें सफेद चीनी का उपयोग सीमित करना चाहिए और इसके बदले खांड या गुड़ का प्रयोग करना चाहिए। 

अंत में, शायद सबसे कठिन है मार्केटिंग और इन विज्ञापनों का शिकार न होना, बल्कि चीनी की मात्रा की जांच करने के लिए उत्पादों के पोषण संबंधी लेबल का अध्ययन करना जो प्रोडक्ट पे दिए होते है | 

तो ब्लॉग का यह आशय बिलकुल नहीं है कि हमें अपने जीवन से चीनी को पूरी तरह से बॉयकाट कर देना चाहिए। हम में से बहुत से लोग मिठाई पसंद करते हैं और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन जब आपकी चीनी का सेवन सीमा से अधिक हो जाता है, तो यह परेशानी पैदा करने लगता है। और अभी, सरकार, चीनी मिलें और ब्रांड सभी इस समस्या के लिए दोषी हैं।

तो दोस्तों हेल्दी खाए और हेल्दी रहे मेरी यही कामना है, कैसी लगी ये जानकारी कमेंट करके जरुर बताये | 

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